| मावळतीला सुर्य , आला चंद्र नभा वरी | |
| काळे काळे मेघ दाटुन आले माझ्या उरी | |
| विजा चमकल्या ह्रुदयात, याद तुझी आली | |
| आश्रुंचे ही पाउस पडला जणू श्रावण सरी | |
| मनात होता याद कल्लोळ, सुख दु:खांच्या पाउल खुणा, | |
| उमटले होते तुझे ठसे उरात माझ्या रे साजणा! | |
| जपले होते दवबिंदु मी, लपवल्या होत्या रंगीत काचा, | |
| सजला होता मझ्या मनात त्या दिवसांचा साठा | |
| राहत होतो महसभेत दोघी राजा-राणी, | |
| तुडवुन गेलास एक सकाळी, राहिली अधुरी कहाणी | |
| अवचित गेलास, असा अचानक तु एक सकाळी | |
| भैरवी चे सुर गुंजले, नही की भुपाळी | |
| निघुन गेलास ज्या वाटेवर, त्यावर आता मि चालत आहे | |
| सरली सकाळ आयुष्याची, आली आता रात्र आहे | |
| थांब तु त्या क्षितिजावरती, जेथी आकाश -धारा भेटती, | |
| अस्त होतो सुर्याचा, प्रेम ज्वला पेटती! | |
| Vaibhavi Vilas Pradhan |
शब्दांच्या जगात आपले स्वागत! शब्द: स्वयं अपुर्ण असुन ही संभाषण पुर्ण करातात. सुरुवात ही त्यांच्या पासुनच होते. कधी विचार केला आहे जर शब्दच नसते तर?
Wednesday, June 8, 2011
अस्त
Subscribe to:
Post Comments (Atom)

No comments:
Post a Comment